डॉ. चंद्रा सायता
चारों ओर से आवाजें सुनाई दे रही हैं … आजादी, आजादी और आजादी।जब सबको आजादी मिल चुकी है ,फिर कौन किससे आजाद होना चाह रहा है।
आज जो कुछ हो रहा है,या जो कुछ दिख रहा है या बोला जा रहा है वह अत्यंत दुखद होकर संविधान की अवमानना लगती है, जो निश्चित ही विचारणीय तथा चिंतनीय मुद्दा है।
हमें भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के अनुसार पीछे की ओर अर्थात मुद्दे की जडो़ं की ओर लौटना होगा ,जो असर अवश्य करती हैं, किन्तु विलंब से। समाज की इकाई परिवार और परिवार की इकाई व्यक्ति है।स्वार्थ की अति ने व्यक्ति को अत्यंत उत्श्रृंखल बना दिया है, फलस्वरूप परिवार का स्वरूप इतना विकृत हो चला है कि रिश्तों का नश्ते- नाबूत होना मंजूर है,पर व्यक्तिगत मनचाही आजादी हाथ से नहीं जानी चाहिए। मतलबी रिश्ते तो जरूरत के हिसाब से बन जाते हैं और बिगड़ भी जाते हैं। इस विकृति का मूलाधार है धन, पैसा,और इससे उत्पन्न ताकत।
ऐसे ही तथाकथित कतिपय व्यक्ति, परिवार प्रमुख, समुदाय या देश आजादी को अपनी बपोती मानकर अपने अपने दायरे में आने वाले लोगों की आजादी के मालिक बन जाते है, जिनकी नजर में ये लोग गुलाम या उनकी कठपतली से ज्यादा कुछ भी नहीं होते ।
यह रोग वैश्विक स्तर पर फैल चुका है। सभी सामाजिक इकाइयां कानून को जेब में रखते हुए “जिसकी लाठी उसकी भैंस” की कहावत को शतप्रतिशत चरितार्थ करने में लगी हुई हैं। सच तो यह है, जो आजादी का संविधान की दृष्टि से उपभोग करते हुऐ लो- प्रोफाइल में रहकर जी रहे हैं, वही जी रहे है, बाकि तो मौत या बर्बादी की दहशत के साये तले जी रहे हैं। इसका समाधान अब इंसानी हाथों के बस का नहीं रहा, समय ही इसको संतुलित कर सकता है।
समय के पास तो कई विकल्प हैं।